मुसलमान तालीम के फ़ील्ड मे अपना हौंसला हुनर या जुझारूपन क्यों नही दिखाता ?

 

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सबसे पहली वजह है मुसलमान के घरेलू हालात , क्योंकि अमूमन जब एक मुसलमान लड़का होश संभालता है तो उसे मिलता है एक पुराना या छोटा या टूटा मकान जिसके बंटने या बिकने के ऊपर झगड़े हो रहे होते हैं , 


एक बाप जो किसी ताबडतोड़ मेहनत से रोटी कमा रहा होता है जिसे देखकर इस लड़के का दिल तड़पता है , एक या एक से ज़्यादा बहनें जिनकी शादी की फ़िक्र मां को घर मे कोई दूसरी फ़िक्र करने ही नही देती ,किसी किसी लड़के को फूफी की शादी की फ़िक्र भी घर मे देखने को मिलती है , 


और किसी किसी को बीमार दादा दादी जिनकी बीमारी की फ़िक्र भी बाप के ऊपर देखकर यह लड़का और ज़्यादा बैचेन होता है, अब इन सब मसाइल ( समस्याओं ) का हल उसे यह नज़र आता है कि जल्दी से कहीं से कुछ आमदनी बढ़े , उसके पास 15-20 साल तालीम पर ख़र्च करने का मौक़ा नही होता , 


अब आमदनी बढ़ाने के लिए वो या तो बाप के साथ ही पुश्तैनी काम मे लग जाता है ,या Gulf countries का रूख़ करने की सोचता है या फेरी ,पैंठ या कबाड़े जैसा कोई काम पकड़ता है और वो इन मसाइल को हल करते करते उस स्टैज मे पहुंच जाता है 


जिस स्टेज मे उसने अपने बाप को पाया था यानी अपनी औलाद को वो बिलकुल वही हालात देता है जो उसे अपने बाप से मिले थे 


और यह क्रम चलता रहता है , 

क्रिकेट की ज़बान मे कहूं तो मुसलमान फ़ालोआन खेल रहा है और लीड पूरी करने मे ही उसकी पूरी इनिंग चली जाती है ,

अगर किसी एक पीढ़ी को अपने बाप से रूकी हुई समस्यायें न मिले तो वो अपने लिये सोचे ,अपने बच्चों के लिये सोचे , फिर या तो वो अपनी तालीम पर 15-20 साल ख़र्च कर सकता है या अपने बच्चों को यह मौक़ा दे सकता है ,


कुछ प्रतिशत घर इस स्तर पर आ भी गये हैं पर पड़ी तादाद अभी पुराने हालात से ही जूझ रहे हैं , 


अगर इनकी एक पीढ़ी को सरकार मदद कर दे तो अगली पीढ़ी को ये ख़ुद तैयार कर लें पर सरकार ऐसा करेगी नही ,यह काम मुसलमानों को ख़ुद करना पड़ेगा।

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