क्या आप इन्हे जानते हैं ?
होता यह है कि जब कोई कौम तरक्की कर रही होती है तो बड़े लोगों के साथ कुछ गुमनाम लोग वह बड़ा कार्य कर जाते हैं कि दुनिया देखती रह जाती है
मुसन्ना बिन हारिसा इराक के अल शैबानी कबीले के थे यह फतह मक्का के बाद अपने कबीले के साथ मदीना आए और अल्लाह के रसूल सलललाहो अलैहे वसल्लम से मुलाकात की कुछ इतिहासकारों ने कहा है कि इन्होंने वहीं इसलाम कबूल कर लिया और सहाबी बन गए पर अधिक तर इतिहासकारों का कहना है कि नहीं वह वापस लौट गए थे बाद में सोच समझ कर इसलाम कबूल किया और मदीना आए जब पहुंचे तो अल्लाह के रसूल का इंतकाल हो चुका था और मदीना में हज़रत अबु बकर की ख़िलाफत थी इस तरह वह सहाबी नहीं ताबई थे
उन दिनों ईराक पर ईरान के सासानी परिवार की हुकूमत थी जो उस समय के सुपर पावर थे और अरब से इस्लाम को मिटा देना चाहते थे कई बार कोशिश भी की थी वहां का बादशाह अल्लाह के रसूल का खत भी फाड़ चुका था
हज़रत अबु बकर चाहते थे कि उनके ख़तरे को रोकने के लिए कुछ आक्रमण नीति अपनाई जाए और एक सेना को ईराक भेजा जाए
सेना तैयार होती है जब उसके नेतृत्व की बात आती है तो उस समय एक से एक योद्धा मुसलमानों में थे जो किसी भी सेना का नेतृत्व कर सकते थे उस समय अबु औबैदा बिन अल जर्राह थे खालिद बिन वलीद थे साद बिन अबी वक्कास थे मोआज बिन जबल अमर बिन अलआस और यजीद बिन अबु सुफियान जैसे बड़े नाम थे
लेकिन हज़रत अबु बकर ने सेना के नेतृत्व के लिए एक आम आदमी चुना और वह थे मुसन्ना बिन हारिसा
मुसन्ना बिन हारिसा ने खुद पर खलीफा के भरोसे और एतमाद का पूरा सम्मान किया और इन्हीं के नेतृत्व में ईराक फतह हुआ इस तरह यह फातिहे ईराक कहलाए ईराक की फतह मामूली काम नहीं थी उस समय के सुपर पावर से एक मुल्क छीन लेना था पर उन्होंने अनहोनी को होनी कर दिखाया अल्लाह की रहमत हो उन पर
यह इसलाम के नबी और उनके बाद के खलिफाओं की खूबी थी कि जिस के अंदर सलाहियत देखते थे उसे पूरा मौका देते थे किसी पद पर चुनने के लिए जात पात कुंबा कबीला गोरे काले का कोई महत्व नहीं था।