आज मुसलमान बेइज़्ज़त क्यों ?


मुसलमान भाइयों ! आप अपने आपको मुसलमान कहते हैं और आपका ईमान है कि मुसलमान पर ख़ुदा की रहमत होती है। मगर ज़रा आँखें खोलकर देखिए, क्या ख़ुदा की रहमत आप पर नज़ील हो रही है। आख़िरत में जो कुछ होगा वह तो आप बाद में देखेंगे, मगर इस दुनिया में जो आपका हाल है उसपर नज़र डालिए। आप अब भी करोड़ों की तादाद में है, इतनी बड़ी तादाद अगर इस्लाम की रूह और ईमान की क़ुव्वत रखती होती तो आप यूँ बेबस और बेवज़न न होते, बल्कि अल्लाह ने  आपके हाथ में हुकूमत सौंपी होती। आपका सिर जो खुदा के सिवा किसी के आगे न झुकता था, अब इनसानों के आगे झुक रहा है। आपकी इज्ज़त जिसपर हाथ डालने की कोई हिम्मत न कर सकता था, आज मिट्टी में मिल रही है। आपका हाथ जो हमेशा ऊँचा ही रहता था, अब वह निचा होता है और इस्लाम के दुश्मनों के आगे फैलता है।  जिहालत, गरीबी और कर्ज़दारी ने हर जगह आपको ज़लील व रुसवा कर रखा है। क्या यह खुदा की रहमत है ? अगर यह रहमत नहीं है, बल्कि खुला हुवा ग़ज़ब और प्रकोप है, तो कैसी अजीब बात है कि मुसलमान और  उसपर ख़ुदा का ग़ज़ब नाज़िल हो ! मुसलमान और ज़लील हो ! मुसलमान और ग़ुलाम हो ! यह तो ऐसी नामुमकिन बात है जैसे, कोई चीज़ सफ़ेद भी हो और काली भी।  जब मुसलमान खुदा का महबूब और प्रिय है तो ख़ुदा का महबूब दुनिया में ज़लील और बेइज्ज़त कैसे हो सकता है ? अल्लाह की पनाह ! क्या आपका ख़ुदा ज़ालिम है कि आप तो उसका हक़ पहचानें और उसकी फरमाँबरदारी करें और वह नाफ़रमानों को आप पर हाकिम बना दे और आपको फरमाँबरदारी के बदले में सज़ा दे ? अगर आपका ईमान है कि ख़ुदा ज़ालिम नहीं है और अगर आप यक़ीन रखते हैं कि ख़ुदा की फरमाँबरदारी का बदला ज़िल्लत से नहीं मिल सकता, तो फिर आपको मानना पड़ेगा कि मुसलमान होने का दावा जो आप करते हैं उसी में कोई ग़लती है। आप का नाम सरकारी कागज़ों में तो जरूर मुसलमान लिखा जाता है, मगर खुदा के यहाँ किसी सरकार के दफ़तर की सनद पर फ़ैसला नहीं होता। खुदा अपना दफ़तर अलग रखता है। वहाँ तलाश कीजिए कि आपका नाम फरमाँबरदारों में लिखा हुआ है या नाफ़रमानों में। 

            ख़ुदा ने आपके पास किताब भेजी ताकि आप उस किताब को पढ़कर  अपने मालिक को पहचानों और उसकी फरमाँबरदारी का तरीक़ा मालूम करें। क्या आपने कभी यह मालूम करने की कोशिश की कि इस किताब में क्या लिखा है ? खुदा ने अपने नबी को आपके पास भेजा ताकि वह आपको मुसलमान बनने का तरीक़ा सिखाए। क्या आपने कभी यह मालूम करने की कोशिश की कि उसके नबी (सल्ल०)  ने क्या सिखाया है ? ख़ुदा ने आपको दुनिया और आख़िरत में इज्ज़त हासिल करने का तरीक़ा बताया। क्या आप उस तरीक़े पर चलते हैं ? ख़ुदा ने खोलकर बताया कि कौन से काम हैं जिनसे इनसान दुनिया और आख़िरत में बेइज्ज़त होता हैं। क्या आप ऐसे कामों से बचते हैं ? बताइए आपके पास इसका क्या जवाब है ? अगर आप मानते हैं  कि न तो आपने ख़ुदा की किताब और उसके नबी की ज़िन्दगी से इल्म हासिल किया और न उसके बताए हुए तरीक़े की पैरवी की, तो आप मुसलमान हुए कब कि आपको इसका बदला मिले ? जैसे आप मुसलमान हैं वैसा ही बदला आपको मिल रहा है और वैसे ही बदला आख़िरत में भी देख लोगे। 

            मैं पहले इसपे एक आर्टिकल लिख चूका हूँ कि मुसलमान और काफ़िर में इल्म और अमल के सिवा कोई फ़र्क़ नहीं है। अगर किसी आदमी का इल्म और अमल वैसा ही है जैसा किसी काफ़िर का है और वह अपने आपको मुसलमान कहता है तो वह बिलकुल झूठ कहता है। काफ़िर कुरआन को नहीं पढ़ता और वह नहीं जनता कि इसमें क्या लिखा है। यही हाल अगर मुसलमान का भी हो तो वह मुसलमान क्यों कहलाए ? काफ़िर नहीं जनता कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की क्या तालीम है और आपने ख़ुदा तक पहुँचने का सीधा रास्ता क्या बताया है। अगर मुसलमान भी उसी की तरह नावाकिफ़ हो तो वह मुसलमान कैसे हुआ ? काफ़िर खुदा की मर्जी पर चलने के बजाए  अपनी मरज़ी पर चलता है। मुसलमान भी अगर उसी की तरह अपनी मरज़ी पर चलनेवाला और आज़ाद हो, उसी की तरह अनपे निजी ख़यालात और अपनी राय पर चलनेवाला हो, उसी की तरह ख़ुदा से बेपरवाह और अपनी ख़्वाहिश का बन्दा हो तो उसे अपने आपको 'मुसलमान' ( ख़ुदा का फरमाँबरदार ) कहने का क्या हक़ है ? काफ़िर हलाल व हराम में फ़र्क़ नहीं करता और जिस काम मापने नज़दीक फ़ायदा या लज्ज़त देखता है उसको अपना लेता है, चाहे ख़ुदा के नज़दीक वह हलाल हो या हराम। यही रवैया अगर मुसलमान का हो तो उसमें और काफ़िर में क्या फ़र्क़ हुआ ? ग़रज़ यह है कि जब मुसलमान भी इस्लाम  के इल्म में उतना ही कोरा हो, जितना काफ़िर होता है और जब मुसलमान भी वही सब कुछ करे जो काफ़िर करता है तो उसको काफ़िर के मुक़ाबले में क्यों बड़ाई हासिल हो और उसका हश्र भी काफ़िर जैसा क्यों न हो ? यह ऐसी बात है जिसपर ठण्डे दिल से हम सबको ग़ौर करना चाहिए।

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